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दुर्गादास मुंशी प्रेमचंद

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एक वर्ष बीत जाने पर, जब औरंगजेब ने देखा, राजपूत अजीत को सीधे -सीधे नहीं देना चाहते, तो उसने जबरदस्ती राजकुमार को लाने के लिए शहर कोतवाल फौलाद को भेजा। उसने दो हजार हथियारबन्द सिपाही लेकर रूपसिंह उदावत की हवेली घेर ली। एकाएक अपने को विपत्ति में पड़ा देख दुर्गादास ने कहा – ‘भाइयो! राजपूत दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का लालच नहीं करते। हम राजपूत कहला कर राजकुमार के समान पाले हुए बालक को अपने हाथों मौत के मुंह में डालना नहीं चाहते। महारानी ने कहा – ‘हमारी चिन्ता मत करो, हमारी लाज रखने वाली यह कटारी है। मैं कब की मर चुकी होती यदि यह देखने की लालसा न होती, कि राजपूत अपने देश पर किस वीरता से अपने प्राणों को न्योछावर करते हैं! रूपसिंह ने बालक की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। रानी ने छाती में कटारी मारकर देह त्याग दी। फिर क्या था।?राजपूत वीर निश्चिन्त हो नंगी तलवारें हाथों में ले हर-हर महादेव करते हुए शत्रु सेना पर टूट पड़े। तीन बड़ी मुगल-सेना के सामने दो-ढाई सौ आदमी इसके सिवा और कर ही क्या सकते थे। सब-के-सब वहीं लड़ मरे। शाम तक लड़ाई होती रही। मैदान साफ हो गया तो शहर कोतवाल ने रूपसिंह की हवेली तिल-तिल खोज मारी; परन्तु राजकुमार अजीत का कहीं पता न चला। बेचारे को इतने राजपूतों की हत्या करने पर भी खाली ही हाथ लौटना पड़ा।

झुटपुटा हो ही चुका था।चारों ओर निर्मल आकाश में तारे छिटकने लगे थे। चन्द्रमा की शीतल किरणें पृथ्वी पर आ-आकर कराहते हुए घायल वीरों को मानो ढाढ़स दे रही थी। सर्द हवा के धीमे झकोरों के लगने से घायल वीरों ने आंखें खोलीं और एक दूसरे के सहारे उठने लगे। इनमें वीर दुर्गादास कर्णोत की दशा दूसरे के देखते कुछ अच्छी थी। चन्द्रमा के प्रकाश में वीर दुर्गादास अपनी ओर के सब राजपूत सरदारों को एक-एक करके देखने लगे। जिस किसी को जीवित पाया, सहारा देकर उठा लाये। ढाई सौ राजपूतों में केवल वीर दुर्गादास कर्णोत, मोकहमसिंह मेडतिया, भोजराज विदावत, रूपसिंह उदावत, महासिंह और दूधोजी चांपावत, इत्यादि इने-गिने सरदार ही जीवित बचे थे। बूढ़े दूधोजी ने कहा – ‘भाई, चांदनी फीकी पड़ चली। रात आधी से अधिक बीत गई। अब यहां बैठने में भलाई नहीं है। देह तो छिन्न-भिन्न हो चुकी है। बचे-खुचे प्राणों की रक्षा करें। वीर दुर्गादास ने कहा – ‘अभी ठहरो हम महारानी का शव लिये बिना यहां से जीवित नहीं जाना चाहते। धिक्कार है! हमारे जीते जी ही महारानी का पुनीत शरीर मुगलों के हाथ पड़े।

उन शब्दों में न जाने क्या जादू था।, कि जो दूसरे के सहारे भी न खड़े हो सकते थे, वही महारानी की लोथ लेकर सवेरा होते-होते दिल्ली से पांच-छ: कोस दूर निकल गये और आबू की घनी पहाड़ियों में दाह-क्रिया कर दी। आज की रात यहीं काटी। दूसरे दिन जयदेव ब्राह्मण के घर पहुंचे। राजकुमार को सुखी देखकर अपना पिछला दु:ख भूल गये। दूसरे दिन आनन्ददास खेंची को राजकुमार के लालन-पालन के विषय में सावधान करके एक दूसरे से गले मिले और विदा होकर, अपने-अपने गांवों को चल दिये। राह में जितने छोटे-बड़े गांव मिले, सब में दुर्गादास ने मुगल सिपाहियों के चौकी-था।ने बने देखे। जैसे-तैसे छिपते-छिपाते कल्याणगढ़ पहुंचे। जैसे गाय से दिन भर का बिछड़ा बछड़ा मिलता है,वैसे ही दुर्गादास अपनी माता के चरणों पर गिर पड़ा। बूढ़ी माता ने उठाकर छाती से लगा लिया। दोनों ही की आंखों से प्रेम के आंसू बहने लगे।

इसी समय दुर्गादास का पुत्र तेजकरण और छोटा भाई जसकरण भी आ गये। दोनों ही रूपवान और बलवान थे। जैसे दुर्गादास अपने देश की भलाई के लिए तन, मन, धन न्योछावर किये बैठा था।, वैसे ही जसकरण और तेजकरण भी देश की स्वतन्त्रता के नाम पर बिके हुए थे। बूढ़ी माता भी मुगलों के अत्याचार से दुखी थी। अपने पुत्रों को देश पर मर मिटने के लिए सदैव उसकाया करती थी। पर जब अपने ही बन्धु देश को बरबाद करने पर तुले बैठे हों, तो कोई क्या करे?

जसवन्तसिंह के बड़े भाई अमरसिंह का लड़का इन्द्रसिंह राज्य के लालच में औरंगजेब से मिल गया था।वह चाहता था। कि देश से प्रभावशाली राजपूत सरदारों को राह में बिछे हुए कांटों के समान नष्ट कर दें और बे-खटके मारवाड़ पर राज करे। औरंगजेब को तो यह उपाय सुझाने की देर थी। उसकी ऐसी इच्छा पहले ही से थी। यह बात उसके मन में बैठ गई। मारवाड़ के मुगल सूबेदार के नाम तुरन्त फरमान जारी कर दिया सरदारों को गिरफ्तार कर लो। फिर क्या था।? गांव-गांव भागे हुए सरदारों की खोज होने लगी। कितने प्राण की डर से बादशाह से जा मिले। कुछ इधर-उधर छिप रहे। उनके घर लूट लिये गये। फिर भी न निकले। शोनिंगजी चांपावत ने सरदारों की यह दशा देखी, तो घबरा उठे। ऐसी दशा में महाराज जसवन्तसिंह की दी हुई लोहे की सन्दूकची की रक्षा कैसे करें! इसी चिन्ता में थे, कि वीर दुर्गादास की याद आ गई। तुरन्त ही घोड़ा कसा और अरावली पहाड़ी के तलैटी में बसे हुए कल्याणपुर में जा पहुंचे। शोनिंगजी को आते देख दुर्गादास अगवानी के लिए आगे बढ़ा। दोनों मेल से गले मिले। देश की दशा पर बातें होने लगीं। शोनिंगजी ने कहा – ‘भाई! यह समय बैठने का नहीं। आलस छोड़ो और हमारे साथ अभी चला। दुर्गादास ने अपनी माता से आज्ञा मांगी और शोनिंगी के साथ चल पड़े। दिन डूबते-डूबते दोनों आवागढ़ कोट में पहुंचे। दुर्गादास मुगल सिपाहियों को इधर-उधर कोट की चौकसी करते देख भीतर जाने में हिचकिचाया। शोनिंगजी ने धीरे से कहा – ‘यदि देश की भलाई चाहते हो, तो चले जाओ।

दोनों एक अंधेरी कोठरी में जा पहुंचे। शोनिंगजी भीतर से एक छोटी-सी लोहे की सन्दूकची उठा लाये और दुर्गादास के सामने रखकर बोले यह था।ती महाराज जसवन्तसिंह ने अपने मरने के दस दिन पहले हमें सौंपी थी, और कहा – ‘था। 'जो वीर मारवाड़ को स्वतन्त्रा कर जोधपुर की गद्दी पर बैठेगा, यह उपहार उसी को दिया जाय। उसे छोड़, दूसरा कोई भी यह जानने की इच्छा न करे, कि इसमें क्या है?' भाई! अब मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता। इसलिए तुम्हें सौंपता हूं और यदि मेरी-सी दशा, ईश्वर न करे, कभी तुम्हारी भी हो, तो ऐसा ही करना, जैसा मैं कर रहा हूं। वीर दुर्गादास सब बातों को धयान से सुनता रहा। तब सन्दूकची उठाकर मटके के सहारे कमर में बांध ली और राम जुहार करता हुआ घोड़े पर सवार हो, सीधी राह छोड़ पगडण्डी पर हो लिया


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